माझ मन, माझा देश..
मी आरसा, अन मीच वेष..
माझी मजल, परिघापुरती..
आखतो मी, जिथे थांबतो ती....
माझी हार, माझी जीत..
माझ्या यात्रेची, माझी रीत..
मनाचा झेंडा, अजिंक्य राहे..
माझी हार, तोवर अशक्य आहे..!!
Saturday, May 8, 2010
Tuesday, May 4, 2010
Hi Dear Reader,
well i wud like to tell you the background behind this poem.
i composed this poem after watching the movie 'Gulaal' by Anuraag Kashyap. its a great movie. please watch it..
the poem is about us.
we, the human beings.
C how we go on making ourselves blind, deaf & finally dead..!!
शौक से देखे थे सपने ,
आँखों पे पट्टी बंधने से पहले..
जुबान को जब काटा नहीं था,
कुछ नगमे हमने भी गाए थे पहले..
सर ऊँचा रहता था जब,
कुछ राहे ऐसी भी चले थे हम..
दिल की धडकनों में बसे,
किसी की पुकार के प्यासे थे हम..
शोरोगुल न था जब,
अपनी आवाज सुनी थी..
दिल के रुकते ही,
न जाने कहाँ चल बसी..
आग पर चलते हैं अब तक,
अफ़सोस हैं न एहसास हैं..
आँख में सपने नहीं हैं,
न चेहरे पर मुस्कान हैं..
रख ही रख बची हैं,
दिल का नामोनिशान नहीं..
खोखले हैं अन्दर से,
सुकी लकड़ी जान नहीं..
दिल के लेने देने का,
कोई रिवाज़ नहीं हैं..
तहखानो में कैद ज़िन्दगी,
ज़िन्दगी नहीं हैं..
दुनिया की सुनते आये थे,
दिल से अपनी कभी बनी नहीं..
क़त्ल हुआ जिस रात उसका,
सुबह कभी फिर लौटी नहीं..
क्या खंजिरो पे कसे,
हाथ वोह मेरे न थे..
रोक लेते वक़्त पर तो,
हम अब तक जिंदा होते..!!
well i wud like to tell you the background behind this poem.
i composed this poem after watching the movie 'Gulaal' by Anuraag Kashyap. its a great movie. please watch it..
the poem is about us.
we, the human beings.
C how we go on making ourselves blind, deaf & finally dead..!!
शौक से देखे थे सपने ,
आँखों पे पट्टी बंधने से पहले..
जुबान को जब काटा नहीं था,
कुछ नगमे हमने भी गाए थे पहले..
सर ऊँचा रहता था जब,
कुछ राहे ऐसी भी चले थे हम..
दिल की धडकनों में बसे,
किसी की पुकार के प्यासे थे हम..
शोरोगुल न था जब,
अपनी आवाज सुनी थी..
दिल के रुकते ही,
न जाने कहाँ चल बसी..
आग पर चलते हैं अब तक,
अफ़सोस हैं न एहसास हैं..
आँख में सपने नहीं हैं,
न चेहरे पर मुस्कान हैं..
रख ही रख बची हैं,
दिल का नामोनिशान नहीं..
खोखले हैं अन्दर से,
सुकी लकड़ी जान नहीं..
दिल के लेने देने का,
कोई रिवाज़ नहीं हैं..
तहखानो में कैद ज़िन्दगी,
ज़िन्दगी नहीं हैं..
दुनिया की सुनते आये थे,
दिल से अपनी कभी बनी नहीं..
क़त्ल हुआ जिस रात उसका,
सुबह कभी फिर लौटी नहीं..
क्या खंजिरो पे कसे,
हाथ वोह मेरे न थे..
रोक लेते वक़्त पर तो,
हम अब तक जिंदा होते..!!
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